7 अक्टूबर 1950 में जब चीन ने तिब्बत पर चढाई की , तब भारतीय नेतृत्व ने धीमे स्वरों में अपना विरोध जताया , जब चीन को यह पता लगा तब बीजिंग ने उग्र स्वर में इसका विरोध जताया और कहा की , भारत , पश्चिमी देशों के बहकावे में आकर , चीन विरोधी हो गया है , इतने में नई दिल्ली ने अपनी कमज़ोर प्रतिक्रिया व्यक्त की और कहा की ” हम सिर्फ शांतिपूर्ण निपटारा चाहते है , तिब्बत मामले का”
बीजिंग ने नई दिल्ली को आश्वासन दिया की तिब्बत का अधिग्रहण बिलकुल शांति पूर्ण तरीके से किया जायेगा , और सेना किसी भी हालत में लहासा(तिब्बत की धार्मिक राजधानी ) में कदम नहीं रखेगी।
दिसंबर 1950 में नेहरू जी ने स्वयं तिब्बत के जमीनी हालत को बीजिंग और लहासा के बीच का आतंरिक मामला बताया।

फिर 26 अक्टूबर 1951 में वादा खिलाफी करते हुए चीनी सेना लहासा में घुस गयी , तब तक चीनी नेतृत्व को भरोसा हो गया था की भारत की तरफ से कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं होगी।
भारतीय नक़्शे और चीनी नक़्शे के अंतर को चीनियों ने शुरुआती दौर में अनदेखा किया क्यूंकि इस समय तिब्बत मुख्य मुद्दा था , और नया विवाद चीनी खड़ा नहीं करना चाहते थे। चीनियों का मकसद नेहरू जी को खुश रखना और भारतीय जनता को सीमा पे हो रहे घटनाक्रम से अनिभिज्ञ रखना था। चीनी नेतृत्व और नेहरू जी दोनों ने राजनयिक माध्यमों का इस्तेमाल किया , जनता , प्रेस और संसद को इन मुद्दों से दूर रखने के लिए।
जब चीनी सरकार को भारतीय नक़्शे और चीनी नक़्शे के विसंगतियों के बारें में पता चला तब कहा की “यह नक्शा चीन की नेशनल पीपुल्स पार्टी (चीनी राजनीतिक दल जिसने चीन पर 1927-48 तक शासन किया और फिर ताइवान चला गया, कम्युनिस्ट शासन आने के बाद ) से मिला है , और यह इसकी वैधता को सिद्ध नहीं करता, यानी हम इस नक्शे को जो पिछली सरकार ने दिया उसे पूरी तरह से नहीं मानते है , और हम भारतीय नक़्शे को भी किसी तरह की चुनौती नहीं देना चाहते।

चीन की पंचवर्षीय छल की योजना , नेहरू जी के चीनी समकक्ष चाऊ एनलाई ने बनाई , चाऊ एनलाई का मकसद था किसी भी हालत में सीमा मुद्दे पर नेहरू जी को नाराज़ नहीं करना है , 1954 में जब चीन , अक्साई चीन पर सड़क योजना बन रहा था तब उन्होंने बीजिंग का सन्देश दिया ” अभी समय नहीं मिला है , नक्शों की तरफ ध्यान देना का “
1956 में तो चाऊ एनलाई लगभग कामयाब ही हो गए थे नेहरू जी को यकीन दिलाने में की ” बीजिंग गंभीरता से सोच रहा मैकमोहन रेखा पर अपनी सहमति व्यक्त करने पर”।
मार्च 1956 में अक्साई चीन( कश्मीर के उत्तर पश्चिम में स्तिथ) हिस्से में सड़क निर्माण कार्य शुरू हो गया था , चीन द्वारा , पहले एक साल तक तो इस सूचना को गुप्त रखा गया , फिर मार्च 1957 में पहली बार इस सड़क का जिक्र हुआ सरकारी अख़बार में जब काम जोर शोर से चल रहा था , लेकिन इसमें थोड़ा सा ही विवरण था सड़क का और बीच की जगहों का , उसमें एक जिक्र आया शहीदुल्ला मज़ार का जो भारतीय क्षेत्र में था , लेकिन नई दिल्ली ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। इसके बाद 2 सितम्बर 1957 को बीजिंग ने सड़क निर्माण को अक्टूबर महीने में पूर्ण होने की बात कही और साथ में एक नक्शा भी जारी किया , जिसमे सड़क साफ़ साफ़ भारतीय क्षेत्र से निकलती हुई दिखाई दे रही थी , इस बात की सूचना भारतीय दूतावास ने नई दिल्ली भेजी , लेकिन कोई कदम नहीं उठाये गए। बाद में इस विषय पर नेहरू जी ने कहा की ” उन्हें यकीं नहीं था “

बाद में अप्रैल 1958 में दो टोही गश्ती दलों को भेजने का फैसला किया गया , सही स्तिथि का पता लगाने को, आदेश यह थे की यदि कोई छोटी चीनी गस्ती दल हमारे क्षेत्र में मिले तो पकड़ कर लाया जाये , और यदि बड़ा चीनी गस्ती दल मिले तो उन्हें वापस अपने क्षेत्र में जाने को कहा जाये , गस्ती दल जून 1958 को रवाना हुआ जिसे चीनियों ने सितम्बर माह में पकड़ लिया और 3 नवंबर 1958 को बीजिंग ने दिल्ली को बताया की दोनों गस्ती दल चीनी क्षेत्र में अनधिकृत रूप से प्रवेश करने के कारण पकडे गए हैं, और छोड़ दिए जायेंगे।
यह पहली बार था जब चीन ने आधिकारिक रूप से अक्साई चीन पर अपना अधिकार व्यक्त किया था।
31 अगस्त 1959 तक चीन की अक्साई चीन पर कब्जे की बात न भारतीय जनता को पता लगी न संसद को , यह भारतीय राय , “हिंदी चीनी भाई भाई” को कायम रखने की कोशिश थी।
1950 से 1959 तक चीनी अपनी सैन्य श्रेष्ठता को बढ़ाता रहा और कूटनीतिक छल के सहारे , अक्साई चीन पर किये हुए कब्ज़े पर पर्दा डालने की कोशिश करता रहा , और भारतीय नेतृत्व में अनिच्छा बनी रही , चीनी दोस्ती को दुश्मनी मानने में। नेहरू जी खुद , चीनी नेतृत्व को अमनपसंद मान रहे थे , जब तक चीनी नेतृत्व के इरादे साफ हुए , तब तक देर हो चुकी थी , 1958 में अक्साई चीन(1958 तक चीन , अकसाई चीन में 178 किलोमीटर लम्बी सड़क का निर्माण कर चूका था ,जो शिंगजियांग को तिब्बत से जोड़ती थी ) , पर कब्ज़े की बात पता लगने पर भी नेहरू जी सीमा पर युद्ध नहीं चाहते थे , और चीन का मुकाबला करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने को तवज्जो देने लगे , चीन को इन सब बातो से पता लग चुका था की भारतीय सैन्य शक्ति उनके मुक़ाबले को तैयार नहीं है अभी और भारतीय नेतृत्व, युद्ध को समाधान के रूप में नहीं देखता।
इस दौरान अक्साई चीन पर चीनी कब्ज़ा और सीमा पर हो रही छुटपुट घटनाएं, दोनो मुल्कों में राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का मुद्दा बनी रही ,उजागर होने के बाद , पत्रों और दावों के लम्बी श्रंखला चली , और इन सब के बीच चीन लद्दाख का एक बड़ा हिस्सा हड़प चूका था , और दबाव डालने लगा भारत पर , अक्साई चीन को चीन का हिस्सा मानने के लिए।

कुछ समय के लिए नेहरू जी यह मान चुके थे , की अक्साई चीन का चीनी कब्ज़ा को NEFA पर भारतीय कब्जे से उचित ठहराया जा सकता है , लेकिन अन्य कांग्रेसी नेताओं ने नेहरू जी को इस धारणा में फसने नहीं दिया।
चीनी मतानुसार अक्साई चीन सामरिक रूप से चीन के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था क्योंकि यह शिंगजियांग और तिब्बत के बीच पूरे साल खुले रहने वाला रास्ता मुहैय करता है , इस पुरे क्षेत्र को वापस देना का मतलब चीन की हार समझी जाती , फिर जिस जमीन पर चीन अपना दावा पेश कर रहा था , उस पर हिंदुस्तानी काबिज थे। यह औचित्य बनाया, चीनी नेतृत्व ने अक्साई चीन का।
उस समय की चीनी नीत्ति में लिख कर या बोलकर अपना जमीन पर दावा पेश करना नहीं था , वह सिर्फ नक्शों का इस्तेमाल करते थे इसकेलिए , और नक़्शे में एक लाइन जो करीब 100 किलोमीटर नीचे थी मैकमोहन रेखा (1914 में बनी वह रेखा जिसे भारत और तिब्बत के बीच की सीमा माना जाता है ) के , उसे चीन, भारत और चीन के बीच की रेखा के रूप दर्शाता था। उस समय के चीन के समकक्ष झोउ एनलाई , ने 1954 और 1956 में दो बार अपनी वार्ता के दौरान नेहरू जी के साथ , चीन द्वारा पेश किये गया नक्शों को उसके दूरगामी दावों के विपरीत , यह बताया की यह पिछले शासकों से प्राप्त नक्शा है , जिसे अभी तक सही नहीं किया गया। यह एक तरह की चाल थी , जिसका इस्तेमाल बाद में किया जाना था , अपना दावा पेश करते वक़्त।

चीन ने पुरे मामले को गुप्त रखा जब तक अक्साई चीन की सड़क पूर्ण रूप से बनाकर नहीं तैयार हो गयी , 1958 से पहले तक चीन और भारत के रिस्तों पर झूट का पर्दा पड़ा रहा , चीनी अल्पकालीन नीत्ति नेहरू जी को गुमराह करने की थी , क्योंकि चीन कभी भी नेहरू जी को लेकर आश्वस्त नहीं थे , 1959 में आकर वह समझे की कहीं न कहीं तिब्बत विद्रोह को उकसाने में नेहरूजी का भी हाथ हैं ।
चीनी राजनैतिक विचार धारा के अनुसार , नेता , नेता होते है , वह जनता की राय को नियंत्रित और निर्देशित कर सकते हैं , और विरोधियों के साथ ताल मेल बिठा सकते है, कैसी भी परिस्तिथि में । नेहरू जी , नेहरू जी थे उनकी प्रतिष्ठा और प्रभाव इतना था की जनता मुश्किल वक़्त में उन्ही का अनुसरण करती। चीनी नेतृत्व का यह मानना था , नेहरू जी जितने प्रभावशाली नेता यदि चाहेंगे तो लोगों की राय बदल सकते है यदि चीन विरोधी भावना प्रबल हुई तो। फिर उस समय प्रेस एक प्रचार माध्यम मात्र था नेहरू जी का, जिसका इस्तेमाल राजपाट के कार्यों में किया जाता था।
चीनी नीत्ति ने सबसे ज्यादा ध्यान नेहरू जी और कांग्रेस पार्टी को दिया , इस पुरे प्रकरण में वह कहीं न कहीं विपक्ष की ताकत का सही आंकलन नहीं कर पाए , जनता की राय बनाने में , और जिससे नेहरू जी प्राभवित होकर अधिक चीन विरोधी नीत्ति की तरफ अग्रसर होने लगे । चीनी नेतृत्व इस बात पर विश्वास ही नहीं कर पाए की , की एक छोटा विपक्ष , नेहरू की नीत्तियों और कार्यों पर इतना आसर डालेगा की , समाधानकारी नेतृत्व आक्रमणकारी में तब्दील हो जायेगा।
1959 के अंत तक चीनी , अपनी नीत्ति कोई वार्ता नहीं से ,पूर्ण रूप से सीमा मामले के निपटारे की तरह कदम बड़ा रहे थे , चीनी यथास्थिति में बने रहते हुए सीमा मामले में चर्चा कर उसका निपटारा करना चाहते थे।
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